लोगों की राय

उपन्यास >> दस द्वारे का पींजरा

दस द्वारे का पींजरा

अनामिका

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :271
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 6083
आईएसबीएन :9788126715312

Like this Hindi book 7 पाठकों को प्रिय

256 पाठक हैं

प्रस्तुत है पुस्तक दस द्वारे का पींजरा

Dus Dware Ka Peenjara

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

‘सैल्वेशन’ से लेकर ‘लिबरेशन’ तक स्त्री मुक्ति किन कठिन रास्तों में गुज़री है- इसकी सजग दास्तान है अनामिका की कृति दस द्वारे का पींजरा। पितृ सत्ता के वर्चस्व तले निरन्तर क्षयग्रस्त इस दुनिया में स्त्री की मुक्ति खोजना आकाश और धरती के बीच सांस्कृतिक पुल बनाने से कम मुश्किल नहीं है। लेकिन, यह कठिन काम अंजाम दिए बिना दस द्वारे के इस पींजरे में रहने वाले सुन्दर पंछी खुले गगन में उड़ने के लिये तैयार नहीं हो सकते।

संस्कृति के इसी पुल पर सफ़र करनेवाले कई ऐतिहासिक पात्रों से यह उपन्यास पाठकों की अविस्मरणीय मुलाक़ात कराता है। इनमें स्वामी दयानंद, फेनी पावर्स, मैक्सम्युलर, महादेव रानाडे, केशवचंद्र सेन, ज्योतिबा फुले, भिखारी ठाकुर और महेन्द्र मिसिर जैसी इतिहास और लोक-प्रसिद्ध हस्तियाँ शामिल हैं जिनके बिना हमारी आधुनिकता अपनी मौजूदा शक्ल-सूरत हासिल नहीं कर सकती थी। दिलचस्प बात यह है कि इन किरदारों के साथ-साथ इस पुल पर हिन्दू समाज का पतित ब्राह्मणवादी रूढ़िवाद, प्रेम और स्त्री-पुरुष रिश्तों का विमर्श, ब्रिटिश और अमेरिकी आधुनिकता का अन्तर, समाज सुधार का आन्दोलन और रुकमाबाई के मुकदमे जैसे प्रकरण भी अपनी यात्रा कर रहे हैं। सरस कथाक्रम, कल्पनाशीलता, विचार-सम्पदा के रँगे हुए इन पृष्ठों पर भारतीय आधुनिकता के इतिहास की एक कमोबेश अछूती तस्वीर अपनी समस्त जटिलताओं के साथ चित्रित की गई है।

दो परिच्छेदों की इस महागाथा में दो नायिकाएँ हैं पंडिता रमाबाई और ढेलाबाई। इनकी आत्मीय कथा के ज़रिए अनामिका ने अपने पात्रों और परिस्थितियों के इर्द-गिर्द भारतीय समाज का एक ऐसा तत्कालीन परिदृश्य बुना है जिसमें आधुनिकता के उन्मोचक प्रभावों से परम्परा का पुनर्संस्कार करने की प्रक्रिया चलती दिखाई देती है।


बहू बाजार और स्कूल


मेरे जीवन की बड़ी घटनाओं में एक है वह दिन, वह घड़ी जब मासूमा नाज कातर आँखे मेरी आँखों में ऐसे उतर आई थीं जैसे किसी खंडहर में शाम उतरती है। मासूमा मेरे साथ पढ़ती थी। स्कूल में रोज का उठना-बैठना था। हम सबसे ज्यादा वह शान्त थी, और सुन्दर इतनी कि जहाँ वह होती थी, वहाँ कोई और दिखाई नहीं देता था। ऐसी लड़कियाँ हाईस्कूल की हिरोइनें होती हैं चुप्पी का रहस्मय घेरा इन्हें ईश्वर बना देता है ! एक अलग तरह की छाँह उनके व्यक्तित्व में आ जाती है, जो कम उमर की लड़कियों की चकर-पकर के बीच चमत्कारिक तो लगती ही है। उसका कोई दोस्त नहीं था ! कोई उसके करीब होने की कोशिश करता तो ऐसी बर्फीली निगाहों से वह देखती कि पहल करने वाले के हौसले ही पस्त ! मैं स्कूल में नई-नई आई थी और कुछ दिन तो मुझे लगता रहा था। जैसे यह सुन्दर लड़की गूँगी ही है। बाद में किसी ने बताया कि घोर घमंडीमल है, इससे बात करने जाने का मतलब है –बेइज्जत होना !

बेइज्जती से किसे डर नहीं लगता ? मैं भी डरी, पर मन में उसके लिए आकर्षण कम न हुआ। वह क्लास में सबसे पीछे बैठती, किसी चर्चा में हिस्सा न लेती पर उसकी आँखों में एक चमक थी जो लगातार कुछ-कुछ सोचनेवाली, तरह-तरह के प्रश्नों से जूझ सकने का दम-खम रखने वाली आँखों में होती है। इसी बीच मेरी इला मौसी की शादी हुई। उसकी ससुराल के रास्ते में एक रहस्यमय मुहल्ला पड़ता था। छोटी मौसी या छोटी बुआ की शादी बच्चों के संसार में एक हाहाकार तो मचाती है ही। प्यार के रिपब्लिक का सांस्कृतिक सचिव होती हैं मौसियाँ और बुआएँ। उनकी कुर्सी तो खाली देखी ही नहीं जाती। किसी न किसी बहाने हम अक्सर ही पहुँच जाते मौसी की ससुराल। और एक अतिरिक्त चक्का था उस रहस्यमय मुहल्ले की अजब-गजब दृश्यावलियाँ टोहते जाने का।

जो भी सवारी हमें लेकर जाती, उसके शीशे से दीखता कि यहाँ तो औरतों का साम्राज्य है-सजी-धजी, दबंग औरतों का। घर टूटे-फूटे ही सही, पर सब पर सिर्फ औरतों की नामपट्टियाँ हैं: परदे लगे हैं, दरवाजे खुले हैं- परदे की ओट में से बड़े-बड़े जाजिमों पर गावतकिए बिछे दीखते। उन पर हारमोनियम और तबला रखा होता। तबला-डुग्गी एक गुट में रहते-एकसाथ गहबहियाँ डाले। हारमोनियम बेचारा एक बुड्ढे-सा पुकुर-पुकुर करता ! दीवारों और अनगिनत कैलेंडर और तस्वीरें-ईश्वर-अल्लाह-क्राइस्ट सब एकसाथ !

इन घरों के ठीक सामने एक मजार के पास फतनू मियाँ, इत्रफरोश की दुकान थी। अपनी मेंहदी-रँगी दाढ़ी सहलाते हुए छोटी-बड़ी रंगीन शीशियों, अगरबत्तियों, मुरादाबादी गुलदानों और सुराहियों से घिरे ये किसी परी-कथा के जादूगर से कम नहीं दीखते थे। उनकी दुकान से लगी पान की दुकान और पान की दुकान के दक्षिण एक चूड़ीहारा बैठता था। फिर कुछ दूर तक एक बेतरतीब मैदान था जिसमें कचरे के ढेर पर मक्खियाँ, बच्चे और बिल्लियाँ तरह-तरह से किले बनाते और तोड़ते थे। वहीं एक तरफ लाइलाज रोगों की अचूक दवाएँ बेचनेवाले एक होम्योपैथ बैठते थे जिनके संरक्षण में हमें मौसी के यहाँ भेजा जाता था, वे ड्राइवर बाबा मिलिटरी से रिटायर होकर हमारे यहाँ काम करने आए थे। उन्हें इस बात का बड़ा मान था कि वे मणिक शॉ के ड्राइवर भी रह चुके हैं- बांग्ला देश युद्ध और उसके पहले के भी कई युद्धों–विश्वयुद्ध तक की कहानियाँ वे रास्तें भर हमें सुनाते जाते। होम्योपैथी में उन्हें अचूक आस्था थी।

एक बार की बात है मौसी के घर जाते हुए वे थोड़ी देर के लिए वे उस रहस्यमय मुहल्ले के होम्योपैथ के यहाँ रुके। हमारी दो आँखें वहां पहुँचकर वैसे भी तितलियों की तरह फड़फड़ाने लगती थीं। कभी इधर, कभी उधर हम सिर घुमा रहे पर एक जगह आकर आँखें ऐसी थमीं कि मुँह खुला का खुल रह गया। ये सामने इतने जगर-मगर कपड़ों में घुटनों तक घुँघरू बाँधे, पान खाए कौन खड़ा था भला ? मासूमा ? सचमुच वह मासूमा ही तो थी और वहीं, उसी क्षण उसकी भी आँखें मेरी आँखों से टकराई। आज इतने बरस बाद भी उन आँखों की दहशत मुझे ऊपर से नीचे तक दहला जाती है-पूरी रफ्तार में नाचते पंखे से टकराकर गौरैया जैसे कट गिरती है कुछ उसकी आँखों में फड़फड़ाया और एकदम से कट गिरा।

उसके बाद फिर वह कभी स्कूल नहीं आई। जैसे-जैसे बड़ी होती गई मैं-और रहस्य के परदे मेरी आँखों से खुलते गए-एक अव्यक्त अपराध-बोध मेरी आँखों में रिसता रहा, बल्कि आज तक रिस रहा है- अगर मेरी आँखें उस दिन मासूमा की आँखों से आ नहीं मिलतीं, अगर अनदेखा कर सकते हम एक दूसरे को, तो वह स्वाभिमानी लड़की स्कूल नहीं छोड़ती। और स्कूल नहीं छोड़ना बहुत सारी समस्याओं का समाधान आप ही हो जाता।

वैसे, आँखें चुरा-भर लेना तो समस्याओं का समाधान नहीं होता। पर कई अधखिले, अधखुले मासूम रिश्ते ऐसे होते हैं जिनके पेच अनदेखा कर देना ही श्रेयकर होता है। अस्सी के पूर्वार्द्ध में बिहार के हम कुछ लड़के –लड़कियाँ यहाँ दिल्ली पढ़ने आए थे। इनमें अभी डी.सी.पी. सेंट्रल है। सेंट्रल दिल्ली में ही पड़ता है जी.बी रोड। उस दिन अरविन्द नारायण दास की पुण्यतिथि पर उनकी बहन, कुमुद के घर उससे मुलाकात हुई। वह जी. बी. रोड से लौटा था- इतना हिला हुआ था, वहां से लौटकर जो भी विवरण उसने दिए, उससे मेरे बचपन की यह घटना मुझमें एक घाव की तरह फिर लगी टभकने।

कह रहा था- ‘‘भारतीय रेल के डिब्बों-सी हैं ये सेक्स वर्कर्स- तरह-तरह की भाषिक अस्मिताएं इनमें घुली हैं। सादा कपड़ों में (पुलिस की वर्दी उतारकर) उनसे और तकलीफों से रू-ब-रू होना एक अनुभव है जो जिन्दगी में कभी आदमी को चैन से नहीं सोने दे। बिहार-बंगाल और नेपाल में दारिद्रय और लावण्य-दोनों ज्यादा हैं, इसलिए वहाँ की लड़कियों की तो भरमार है।’’
क्या मेरी मासूमा भी उनमें एक होगी ? अब तो उसके भी बाल पकने को आए होंगे- कान के पास इक्का-दुक्का पक भी गये होंगे। कैसा लगता होगा उसे ? क्या उसके बच्चे हुए होंगे ? क्या उसने उन्हें स्कूल भेजा होगा ? हाँ मेरा मन कहता है जरूर भेजा होगा उन्हें स्कूल, अपने ही अनुभव से सीखा होगा कि शिक्षा ही इस दलदल से निकलने का एकमात्र उपाय है- अस्मिता के विकास की एकमात्र गारंटी। हमारी वंशपरंपरा /जाति /वर्ग नस्लें व्यक्तित्व का आरोपित सत्य ही होते हैं- महज एक संयोग- उसके लिए शर्मिदा या गौरवान्वित होना दुनिया की बड़ी बेवकूफियों में एक है !


प्रथम खंड


चकलाघर की एक दुपहरिया


‘जिन्दगी इतनी सजगता से जो हो जाती है विवस्त्र
क्या केवल मेरी हो सकती है ?’’
उसने कहा और चला गया !
एक कुंकुम रंग की क्रूरता
पसरी थी अब घर में !
एक कँटीली ऊँघ लतरी थी
आंगन की दीवार पर !
सीढ़ी के दोगे में बिछाकर चटाई
बैठी थी धूप बाल खोले।
विद्या-विनोदनी परीक्षा का फार्म भरा था उसने
संस्कृति विद्यापीठ से !
पढ़ती हुई कुछ-कुछ
लाँघ गई वह सदियाँ,
बोलने लगी तंद्रा में
अलग तरह की भाषाः

आम्रपाली शायद यही भाषा बोलती होगी-
‘राजकुँवर’, उसने कहा, ‘क्या नदी का पहला पाप है विह्वलता ?
चाहिए, शापमुक्ति चाहिए अचेतन भँवर से,
पर पाप होता है क्या ?
खुल जाती है ऋतुसम्भोग से बन्दीशाला,
छा जाता है अंधकार, सार्थवाह,
लेकिन उस मेधायित अंधकार में भी
कुछ द्युतियाँ तो होती ही हैं निराकार !’
पता नहीं कौन-सी पहाड़ी थी

जो धूप उतरने लगी थी !
चढ़ते हुए साथ थीं आदिम स्मृतियाँ,
उतरती हुई वह अकेली थी।
उतरता हुआ क्यों कोई अकेला हो जाता है कोई भी-
जैसे कि नींद टूट जाने पर।
कोई सोए साथ भले पर जागते सभी अकेले हैं।
होते उस्ताद अगर जीवित, आगे की पंक्ति पूरी करते –क्या कहते ?
कोई सोए साथ भले पर जागते सभी अकेले हैं।
सबकी अपनी ही थकान है, सबके अलग झमेले हैं-
या ऐसा ही कुछ कहते वे !
घर की सीढ़ी भी तो ए पहाड़ी थी !
सीढ़ी-घर में थे बहुत-से कबूतर –
और कबूतर चश्म भय और संदेह।
जिंदगी इतनी सहजता से जो हो जाती है विवस्त्र-
क्या केवल मेरी हो सकती है-उसने कहा था !
पर वह केवल उसकी क्यों होती ?
उतरती हुई धूप ने सोचा-
क्यों होना चाहिए कुछ भी किसी का
उसकी मर्जी के खिलाफ ?

प्रथम पृष्ठ

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book